Wednesday, November 10, 2010

पलाश कुमार की कविताएँ



सौ बीघा (धनबाद मुख्यालय से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर कुसुंडा क्षेत्र में एक कालोनी हुआ करता था सौ बीघा. वहीँ कोयले खदानों, कोयले, पुटुष की झाड़ियों, बारूद घर, बत्ती घर, चानक (जहाँ से कोयला काटने वाले मजदूर धरती के अन्दर जाते हैं ) आदि के बीच पला बढ़ा. अब सौ बीघा नहीं है. उसी सौ बीघा को समर्पित यह कविता .)


सौ बीघा
नहीं पता
किसने कब दिया तुम्हें
यह नाम लेकिन तुम्हार विस्तार
कहीं अधिक था
तुम्हारे नाम से.
तुम्हारी कोख में
हर वक्‍त पलती थीं
हजारों जिंदगियां धौरों* में बटे तुम
वास्तव में एक ही थे
एक ही रक्त प्रवाहित होता था
और साँसें भी एक साथ चलती थीं

ऊपरी धौरे से
निचले धौरे के बीच
एक ही हवा बहती थी
एक ही ख़ुशी से
खुश होते थे तुम
जैसे पगार के दिन
दशहरा/दिवाली/होली/ईद में
एक ही रंग में रंगे होते थे तुम
निचले धौरे के सबसे आखिर में
था एक माजर
पहली बार कव्‍वाली सुनी थीं वहीं
और
चैता/विरहा/रामलीला और
परदे वाला सिनेमा
सब याद हैं मुझे
चानक के
बड़े बड़े चक्कों के शोर से
सोता था
जागता था
जीता था
सौ बीघा
बत्ती घर के
रैकों पर चार्ज होती
हजारों बत्तियां
युद्ध के मैदान में हथियार सी लगती थी
और हर बत्ती की जांच करते और
बत्ती का नंबर नोट करते
बत्ती बाबू
सौ बीघा के हर घर के
मांग की सिन्दूर थे
क्योंकि खादान के भीतर
बत्ती बुझ जाने का मतलब होता था
जिन्दगी का बुझ जाना
तुम्हारे बीचो बीच
हुआ करता था
एक बारूद घर
जहाँ मनाही थी
जाने की
रहस्य ही बना रहा
वह बारूद घर
ख़त्म होने तक
याद करो पंडित स्कूल
और शनिवार की आखिरी कक्षा
जहां हुआ करता था
सांकृतिक कार्यक्रम
अपनी पहली कविता
वहीं सुनायी थी मैंने

स्कूल के पीछे
शिव मंदिर के
पंडित जी की छोटी बेटी
मुस्‍कराती थी शर्माती थी



झरिया
सुना होगा
मुहावरा आपने
आग से खेलना
लेकिन
हम झारियावाले
आग जी रहे हैं
पीढ़ियों से
आग ओढना
बिछौना आग
आग पर चलना
आग से खेलना
हमारा शौक नहीं है
मजबूरी है
जो अफसर, सरकार, मंत्री के
बदलने के साथ
नहीं बदली
बढ़ती ही गई आग
पेट में
आँखों में
ह्रदय में
और कोयले में
झरिया
जहाँ पीपल के नीचे के हनुमान जी की मंदिर में
कुस्ती लड़ते थे दद्दा
सुना है अंग्रेजो के भी पटक दिया करते थे
जहाँ ठेहुनिया दे के चलना सीखे थे
बाबूजी हमारे
और हम एक धौरा से दुसरे धौरा
साइकिल हांकते रहते थे दिन भर
जिसको हमारे पसीने की गंध का भी पता है
अब नहीं रहेगा
ध्वस्त कर दिया जायेगा झरिया
और झरिया में पलने वाले सपने
झरिया
एक शहर नहीं है
देशवासियों
एक घर है
जो जल रहा है
जो टूट रहा है
बिखर रहा है
विस्थापित हो रहा है