Thursday, July 14, 2011

ग़रीबी / पाब्लो नेरूदा

आह, तुम नहीं चाहतीं--
डरी हुई हो तुम
ग़रीबी से
घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना
नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना

मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,
जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,
तंगहाली ।
हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह
जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है

लेकिन मैं तुम्हें
इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।
अगर मेरी ग़लती से
यह तुम्हारे घर में दाख़िल होती है
अगर ग़रीबी
तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,
उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी
जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।
अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं
काम की तलाश में निकल पड़ो
गरबीले डग भरती,
और याद रखो, मेरे प्यार, कि
मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ
और इकट्ठे हम
सबसे बड़ी दौलत हैं
धरती पर जो शायद ही कभी
इकट्ठा की जा पाई हो ।

(कविता कोश से साभार)

Monday, February 7, 2011

जो कि मैं हूँ : परमेन्द्र सिंह

देवताओं से कम लोलुप
राक्षसों से कम आततायी
धूप-धूल-धुएँ से सना
अधूरी इच्छाओं का शिकायती दस्तावेज
जो कि मैं हूँ -

सखेद सूचना की मजबूरी-सा
समय के बोर्ड पर टँगा
जो कि मैं हूँ -
अपने जीवन की कहानी का नायक ढूँढ़ता एक्स्ट्रा

कृपया मुझसे किसी के घर का पता न पूछें
यह शहर मेरा है पर नया हूँ मैं यहाँ
मेरे लिए सब रास्ते अजनबी हैं
जहाँ लोग एक पंक्ति के अँधेरे से
दूसरे अँधेरे में प्रवेश कर रहे हैं

इस अजनबी शहर में
या तो लोग सपनों के तले दबे पड़े हैं
या सपने लोगों तले।

मुझसे मेरी कविता का अर्थ भी न पूछो
जहाँ अक्सर वही गुना जाता है कई गुना
जो कहा नहीं गया कभी
वहाँ सिर्फ भाषा में उकेरी गयी बेहोशी है

मैं सिर्फ अपने दर्द को जानता हूँ और चूँकि
भाषा के बाहर उनके मामूली हो जाने का डर है
इसलिए उसे कविता के पिटारे में रखा है
और पीड़ा का दिव्य चोला धारण किया है।

मुझे अपनी आवाज प्राचीन समय की नाल से आती सुनाई देती है
इसीलिए मैं अपनी जबान को
किसी और के मुँह में रखता हूँ
और अभिव्यक्ति की आजादी का लुत्फ उठाता हूँ।