Monday, July 26, 2010

रमेश प्रजापति की कविताएँ


किरकिरा रही है समय की धूल
दिन के मुँह पर बिखरे लाल धब्बे पड़ गए हैं साँवले
धरती की छाती पर पसर गए हैं काले पहाड़
और खेत में ठिठुर रही है
एक उम्मीद बची थी आँखों में कि
अँधेरे में लिपटा धरती का चेहराजगमगा उठेगा,
फिर से धूल मं लिपटी चींजें झिलमिलाएगी
इसी टिमटिमा रहे थे धुंधली आँखों में जुगनू

तरक्की के दौर में
मज़दूरों के सपने लहूलुहान हो रहे हैं
बाज़ार के मगरमछी जबड़े में फँसा जीवन
झूल रहा है अतीत और भविष्य के बीच
अँधेरे के दूसरे छोर पर गगनचुंभी इमारत की बुर्ज पर ठहरा
झिलमिला रहा है उम्मीद का चाँद
अपने ही खेतों में
कुछ किसान-परिवार सो चुके हैं कर्ज़ की गहरी नींद में
और फूलता जा रहा है औद्योगिकरण का पेट
पहाड़ के कँधे पर महकते मकोये, शहतूत, करौंदे
और सेमल की मीठी गंध के झोंकों से खिल रही हैं बच्चों की बाँछें
बिवाई फटे पैरों से बेखटके नाप रहे हैं चरवाहे
पहाड़ों का कद,
और अपने पैर की कोस रहे हैं हम
धरती के उजाड़ उपवन में
डरी सहमी-सी उड़ रही हैं चिड़ियाएँ और तितलियाँ

नए साज़ो-सामान के लदा
किसानों के सपनों का खून करता
आ रहा है धड़धड़ता नए पूँजीवाद का रथ
ढीली हो चुकी है मजबूत हाथों की पकड़
छीने जा रहे हैं भूख से लड़ने के औज़ार
ग्लोबलवार्मिंग के खतरनाक इरादों से
काँप रहे हैं धरती के मौसम
एक विषाद भरे काले धुएँ के अँधेरे में
डूब रही हैं बस्तियाँ,
जंगलों में पसर रहा है खौफनाक सन्नाटा
मजदूरों के हाथों से छूटकर
रोटी उड़ रही है हवा में
और बेरहम समय की धूल
किरकिरा रही है मेहनतकशों की जीभ पर।

काँप उठा राजपथ
यहाँ ...
दूर तक फैली है गूँगी नीरवता
भोले-भाले पड़ोसी के घर में
छुपे आस्तीन के साँप के डसते ही अचानक
गूँज उठीं चीत्कारों से सूनी गलियाँ
नोंच रहे हैं आवारा कुत्ते लहुलुहान मानवता की हड्डियाँ
और चिपके हुए है मांस के लोथड़े
ऊँचे भवनों की चिकनी दीवारों

बरसों पुरानी प्रेम की नदी
अचानक तोड़ रही है आक्रोश से
अपने तटबंध
उनकी धमक से गड़बड़ा गया है सत्ता का व्याकरण,
हवाओं में घुलती खुरों की ठप-ठप
भर रही है ब्रह्मांड का गह्वर ,
क्षितिज से उठते धूल का बवंडर से
चैकन्ने हो रहे हैं दिशाओं के कान
दौड़ रही है धमनियों में
नगाड़े की धुन
और झूम उठी हैं मस्ती में
पेड़ों की टहनियां
बच्चे जा रहे हैं अपने कोमल कंधों पर लादकर
भविष्य की चिंता का बोझ
शिक्षा की दुकानों की ओर
और चिड़िया दे रही है चुग्गा चूजों को
गूँज रही हैं हवा में
तनी मुट्ठियों की कसक
बरसों की उनींदी आँखें खोलकर
बदहाली और दहशत की धुंध में लिपटा यह शहर
थिरक उठा है मृदंग की थाप पर
टुनटुनाती टालियों की धुन पर
झूम रहा है खण्डहरों का सन्नाटा
और बरसों से खामोशी में लिपटा पेड़
अँधेरे की छाती पर पड़ते ही
सूरज के घोड़ों की टापों से
फूटतीं चिनगारियाँ से
चैककर काँप उठा है राजपथ।

4 comments:

  1. आपकी कविताओं में लोक का स्पर्श तथा स्मृति-बोध प्रभावित करता है। बधाई !

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  2. आपकी जनवादी सोच का कायल हुआ।

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  3. अच्छी कविताएँ है रमेश भाई....काफ़ी पहले आप से हुई एक फोन वार्ता याद आ रही है....

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  4. बेहतर कविताएं...
    बड़े फ़लक की कविताएं...

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