Monday, August 23, 2010

शहंशाह आलम की कविताएँ


सभाओं के बाद


शहर में रोज़ सभाएँ होती हैं इन दिनों
मरुस्थल के निकट पीले पत्तों के बीच
सभाओं में उन्हें अपनी ही कही
बातों कोसत्य साबित करने की चिंता होती बस

हमें दुष्ट घोषित करते वे बार-बार
सभाओं में और साा स्थल के बाहर
यही समय है बिलकुल यही समय उनके लिए

वे सबसे मौलिक शैली में
असंख्य पक्षियों को मारते
असंख्य वृक्षों को काटते
असंख्य घरों को उजाड़ते
असंख्य तस्वीरों को फाड़ते

असंख्य-असंख्य शब्दों के साथ करते बलात्कार तन्मय

सभाओं के बाद अमात्य-महामात्य
मुस्काते हौले-हौले एकदम असामाजिक
हमारे समय के रुदन पर।

मैं भी कहूँगा

मैं भी कहूँगा,वंदे मातरम्
जैसे कि कहती हैं लता मंगेश्कर
जैसे कि कहते हैं ए आर रहमान
किसी गृहमंत्री
किसी सरसंघचालक
किसी पार्टी अध्यक्ष के कहने से नहीं कहूँगा मैं
वंदे मातरम्।

जाड़ा

आज सबसे अधिक क्रोधित हुआ वह गँूगा
सबसे अधिक गुस्साई वह औरत
सबसे अधिक झल्लाया वह रिक्शावाला
आज हड्डियाँ बजती थीं उनकी चतुर्दिक

आज अचानक सब
सिर्फ़ क्रोधित हुए
सिर्फ़ गुस्साए
सिर्फ़ झल्लाए
शिविर में
इस भूखंड़ पर।

(उनके ताज़ा कविता-संग्रह ‘वितान’ से साभार)

Saturday, August 7, 2010

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविताएँ



याद नहीं आता
कहाँ देखा है इसे
प्रेम पत्र लिखते या शिशु को स्तन पान कराते
कोणार्क या खजुराहो किन पत्थरों में
बहती यह स्त्रोतस्विनी
किन लहरों पर उड़ते हुए
पहुँची है यहाँ तक

देखा है इसे अफ़वाहों के बीच
जब इसका पेट उठ रहा था ऊपर
और शरीर पीला हो रहा था
जिसे छिपाने की कोशिश में
यह स्वयं हो गई थी अदृश्य
हाथ पसारे मिली थी यह एक दिन
एक अनाम टीसन पर
बूढ़े बाप की ताड़ी के जुगाड़ के लिए
पलापाती जीभों के बीच
एक दिन पड़ी थी अज्ञात
यह नितम्बवती उरोजवती चेतनाशून्य सड़क पर

यही है
जो महारथियों के बीच नंगी होती
करती अगिन अस्नानधरती में
समाती रही युगों युगों से लोक मर्यादा के लिए

यही है
जिसे इतनी बार देखा है कि
याद नहीं आता कहाँ देखा है इसे ।


2
पहली बार नहीं देखा था इसे बुद्ध ने
इसकी कथा अनन्त है
कोई नहीं कह सका इसे पूरी तरह
कोई नहीं लिख सका संपूर्ण

किसी भी धर्म मेंए किसी भी पोथी में
अँट नहीं सका यह पूरी तरह

हर रूप में कितने.कितने रूप
कितना.कितना बाहर
और कितना.कितना भीतर
क्या तुम देखने चले हो दुःख

नहीं जाना है किसी भविष्यवक्ता के पास
न अस्पताल न शहर न गाँव न जंगल
जहाँ तुम खड़े हो
देख सकते हो वहीं
पानी की तरह राह बनाता नीचे
और नीचे
आग की तरह लपलपाता
समुद्र.सा फुफकारता दुःख

कोई पंथ कोई संघ
कोई हथियार नहीं
कोई राजा कोई संसद
कोई इश्तिहार नहीं

तुम
हाँ हाँ तुम
सिर्फ़ हथेली से उदह हो
तो चुल्लू भर कम हो सकता है
मनुष्यता का दुःख ।

Thursday, August 5, 2010

कुमार अनुपम की कविताएँ


1
सुबह काम पर निकलता हूँ
समूचा निकलता हूँ
काम पर जाते।

जाते हुए पाँव होता हूँ
या हड़बड़ीधक्के होता हूँ या उसाँस
काम करते-करते हुएहाथ होता हूँ
या दिमाग़ आँख होता हूँ
या शर्मिन्दा चारण होता हूँ

या कोफ़्त उफ़्फ़ होता हूँ या आह
काम से लौटते-लौटते
हुए नाख़ून होता हूँ
या थकानबाल होता हूँ
या
फ़ेहरिस्त
शाम काम से लौटता हूँ समूचा;
उम्मीद की आँखें टटोलती हैं मुझे
मेरे भीतर, हड्डियों और नसों
और शिराओं में रातकलपती रहती है सुबह के लिए।


2
पुरखों की स्मृतियों और आस और अस्थियों पर थमी थी घर की ईंट.ईंट
उहापोह और अतृप्ति का कुटुम्ब वहीं चढ़ाता था

अपनी तृष्णा पर सान
एक कबीर अपनी धमनियों से बुनने की मशक्कत में

एक चादर निर्गुन पुकार में बदल जाता था
बारम्बार कि सपनों की निहंगम
देह के बरक्स छोटा पड़ जाता था हर बार आकार
बावजूद इसके जो था एक घर था
विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज़
बीसवीं सदी के बिचले वर्षों में स्मृतियां
और स्वप्न जहाँ दिख रहे हैंसहमत सगोतिया
पात्रा एलबम की तस्वीर है अब मात्रा
फासलों को पाटने की वैश्विक कार।

सेवा में बौख़लाया था जब सारा जहान
दिखा तभी पहली पहली दफ़ा
अतिस्पष्ट देख कर भी जिसे किया जाता रहा था अदेखा
शिष्टता के पश्चाताप का छंदण्ण्ण्
और दीवारों और स्मृतियों से एक-एक कर उधड़ गए

बूढ़ी त्वचा के पैबंद गुमराह
आंधियों के ज़ोर से खुलते ही गये आत्मा के घाव
और इक्कीसवीं सदी का अवतार हुआ
मध्यवर्गीय इतिहास के अंत के उपरांत
कुछ तालियाँ बजीं कुछ ठहाके गूँजे
नेपथ्य से कुछ जश्न हुए
सात समुंदर पार एक वैश्विक गुंडे ने डकार खारिज की
राहत की सुरक्षित साँस ली
अनावश्यक और बेवज़ह घटित हुआ
प्रतीक्षित शक गोया कि घटना कोई घटती नहीं अचानक
किस्तों में भरी जाती है हींग आत्मघाती सूखती है
धीरे-धीरे.धीरे भीतर की नमी मंद पड़ता है
कोशिकाओं का व्यवहार धराशाई होता है
तब एक चीड़ का छतनार
धीरे-धीरे-धीरे लुप्त होती है एक संस्कृति
एक प्रजाति षड्यंत्रों के गर्भ में बिला जाती है
ख़ैर! को जुमले की तरह प्रयोग करने से बचता है
एक कवि
अपनी चारदीवारी में लौटने से पहले कि
कुटुम्ब की अवधारणा ही अपदस्थ
जब घर की नयी संकल्पना से
ऐसे में गल्प से अधिक नहीं रह जाता यह यथार्थ।

Monday, August 2, 2010

व्योमेश शुक्ल को बधाई


नयी पीढ़ी की बुलंद आवाज़ के प्रतिनिधि कवि व्योमेश शुक्ल को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया हैउनको शब्द-शक्ति की और से हार्दिक बधाईइस अवसर पर विष्णु खरे की इन पंक्तियों के साथ उनकी दो कविताएं प्रस्तुत है -
‘‘जब आपका मुक़ाबला व्योमेश शुक्ल जैसे प्रतिभावान युवा हिन्दी कवि से होता है तो आप सिर्फ उसे समझने के लिए नहीं,स्वयं अपना दिमाग साफ करने के लिए भी एक पहला उपक्रम तो यह करते हैं कि उसे और उस जैसे अन्य युवा हिन्दी कवियों को किस परम्परा के परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू किया जाए। प्रारम्भ में ही ऋग्वेद और महाभारत की काव्य-प्रवृत्तियाँ याद आती हैं जो कबीर, रहीम, रसखान, मीर, नज़ीर, ग़ालिब, हरऔध, छायावादी चतुमूर्ति-विशेषतः निराला,मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन,भवानी प्रसाद मिश्र से होती हुई हमें रघुवीर सहाय तक पहुँचाती हैं,लेकिन एकदम सूसामयिक संदर्भ में हमें व्योमेश शुक्ल जैसे 21 वीं सदी के पहले दशक के युवा हिन्दी कवि मुख्यतः मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के अपेक्षाकृत बड़े सिलसिले या प्रबलतर धारा के हरावल में दिखाई से देते हैं।’’
-विष्णुखरे
चौदह भाई बहन
झेंप से पहले परिचय की याद उसी दिन की
कुछ लोग मुझसे पूछे तुम कितने भई बहन हो
मैंने कभी गिना नहीं था गिनने लगा
अन्नू दीदी मीनू दीदी भानू भैया नीतू दीदी
आशू भैया मानू भैया चीनू दीदी
बचानू गोल्टी सुग्गू मज्जन
पिण्टू छोटू टोनी
तब इतने ही थे
मैं छोटा बोला चौदह
वे हँसे जान गये ममेरों मौसेरों को सगा मानने की मेरी निर्दोष गलती
इस तरह मुझे बताई गई
माँ के गर्भ और पिता के वीर्य की अनिवार्यता
और सगेपन की रूढ़ि

बूथ पर लड़ना
पोलिंग बूथ पर कई चीज़ों का मतलब बिल्कुल साफ़
जैसे साम्प्रदायिकता माने कमल का फूल
और साम्प्रदायिकता-विरोध यानी संघी कैडेटों को फर्जी वोट डालने से रोकना
भाजपा का प्रत्याशी
सभी चुनाव कर्मचारियों
और दूसरी पार्टी के पोलिंग एजेंटों को भी, मान लीजिये कि आर्थिक विकास के तौर पर एक समृद्ध
नाश्ता कराता है
इस तरह बूथ का पूरा परिवेश आगामी अन्याय के प्रति भी कृतज्ञ
ऐसे में, प्रतिबद्धता के मायने हैं नाश्ता लेने से मना करना

हालाँकि कुछ खब्ती प्रतिबद्ध चुनाव पहले की सरगर्मी में
घर-घर पर्चियां बांटते हुए हाथ में वोटर लिस्ट लिए
संभावित फर्जी वोट तोड़ते हुए भी देखे जाते हैं
एक परफेक्ट होमवर्क करके आए हुए पहरुए
संदिग्ध नामों पर वोट डालने आए हुओं पर शक करते हैं

संसार के हर कोने में इन निर्भीकों की जान को खतरा है
इनसे चिढ़ते हैं दूसरी पार्टियों के लोग
अंततः अपनी पार्टी वाले भी इनसे चिढ़ने लगते हैं
ये पिछले कई चुनावों से यही काम कर रहे होते हैं
और आगामी चुनावों तक करते रहते हैं
ऐसे सभी प्रतिबद्ध बूढ़े होते हुए हैं
और इनका आने वाला वक्त खासा मुश्किल है

अब साम्प्रदायिक बीस-बीस के जत्थों में बूथ पर पहुँचने लगे हैं
और खुलेआम सैफुनिया सईदा फुन्नन मियाँ जुम्मन शेख अमीना और हामिद के नाम पर वोट डालते हैं
इन्हें मना करना कठिन समझाना असंभव रोकने पर पिटना तय

इनके चलने पर हमेशा धूल उड़ती है
ये हमेशा जवान होते हैं कुचलते हुए आते हैं
गालियाँ वाक्य विन्यास तय करती हैं चेहरे पर विजय की विकृति
सृष्टि में कहीं भी इनके होने के एहसास से प्रत्येक को डर लगता है

एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के अंतराल में
आजकल
फिर भी कुछ लोग इनसे लड़ने की तरकीबें सोच रहे हैं