Sunday, December 12, 2010

गुनगुना रहा है डीयर पार्क : रमेश प्रजापति


गनीमत है कि
टुकड़ा-टुकड़ा बिखरी जिन्दगी को समेटने में
मैं अभी जिंदा हूँ समय की भयावहता के बीच
और चाहता हूँ खुलकर हँसना
काल की निर्दयता पर
एक पूरी साहित्यिक दुनिया है डीयर पार्क
और इस दुनिया में ध्रुव तारे की तरह
चमकते हैं पंड़ित विश्वनाथ त्रिपाठी

बाज़ारवाद के शोर में मानवता की उर्वरा भूमि
धीरे-धीरे होती जा रही है बंजर
टेढ़े-मेढ़े जीवन के रास्ते
आज कुछ ज्यादा ही हो गए हैं कठोर
पर दिलशाद गार्डन के ‘डीयर पार्क’ का रास्ता
खुलता है अभी भी हमारे घर की ओर
झिलमिला रहा है आँखों में
अपनेपन से भरे
मुस्कुराते रहते हंै पंडित विश्वनाथ त्रिपाठी

सुबह काम पर निकले व्यक्ति की प्रतीक्षा में
घरभर की आँखें बिछ जाती हैं जब
शाम के धुँधलके में डूबे रास्तों पर
बढ़ जाती है हमारी चिंतामग्न चहलकदमी
इस विद्रूप समय में ‘डीयर पाकर्’ में बैठे सभी संगी-साथी
बँधाते हंै एक-दूसरे का धीरज
और दुनिया को देखते है अपनी नज़रों से
दरअसल डियर पार्क से दूर होना
दुनिया से दूर होना है


जबकि घृणा का कोई स्थान नहीं जीवन में
परंतु सच को सच कहना बन जाती है जब गले की हड्डी
तब आत्मा के लहू से
कपड़ों पर बिखर जाते हैं सूर्ख छींटे
ग्लानि के समुद्र में उठतीं-गिरतीं लहरों पर
आहत होता रहता है डीयर पार्क

साहित्य में आई क्रूर हवाओं पर उँगली उठाते
डीयर पार्क की हरियाली पर बैठे
कुछ दोस्त
बखूबी समझते हैं अपनी जिम्मेवारी
दुःखों के गहरे अंधकार में भी
परछाईं की तरह नहीं विलुप्त होता डीयर पार्क
और हम सब का प्यारा दोस्त
झकझोर कर झुटपुटे की चादर
झिलमिला देता है हमारे हिस्से के अँधेरे की सघनता

तमाम सामाजिक विद्रूपताओं के बावजूद
गनीमत है कि
सही-सलामत घूम रही है धरती
अपनी धुरी पर
दिशाएँ टिकी हैं अपनी जगह पर
पेड़ गा रहे है हरियाली का गीत
आदमी के स्वप्न में चहक रही है चिड़ियाएँ
और अपनी सौम्यता के साथ
गुनगुना रहा है अभी भी
दिलशाद गार्डन का डीयर पार्क!

Wednesday, November 10, 2010

पलाश कुमार की कविताएँ



सौ बीघा (धनबाद मुख्यालय से कोई पंद्रह किलोमीटर दूर कुसुंडा क्षेत्र में एक कालोनी हुआ करता था सौ बीघा. वहीँ कोयले खदानों, कोयले, पुटुष की झाड़ियों, बारूद घर, बत्ती घर, चानक (जहाँ से कोयला काटने वाले मजदूर धरती के अन्दर जाते हैं ) आदि के बीच पला बढ़ा. अब सौ बीघा नहीं है. उसी सौ बीघा को समर्पित यह कविता .)


सौ बीघा
नहीं पता
किसने कब दिया तुम्हें
यह नाम लेकिन तुम्हार विस्तार
कहीं अधिक था
तुम्हारे नाम से.
तुम्हारी कोख में
हर वक्‍त पलती थीं
हजारों जिंदगियां धौरों* में बटे तुम
वास्तव में एक ही थे
एक ही रक्त प्रवाहित होता था
और साँसें भी एक साथ चलती थीं

ऊपरी धौरे से
निचले धौरे के बीच
एक ही हवा बहती थी
एक ही ख़ुशी से
खुश होते थे तुम
जैसे पगार के दिन
दशहरा/दिवाली/होली/ईद में
एक ही रंग में रंगे होते थे तुम
निचले धौरे के सबसे आखिर में
था एक माजर
पहली बार कव्‍वाली सुनी थीं वहीं
और
चैता/विरहा/रामलीला और
परदे वाला सिनेमा
सब याद हैं मुझे
चानक के
बड़े बड़े चक्कों के शोर से
सोता था
जागता था
जीता था
सौ बीघा
बत्ती घर के
रैकों पर चार्ज होती
हजारों बत्तियां
युद्ध के मैदान में हथियार सी लगती थी
और हर बत्ती की जांच करते और
बत्ती का नंबर नोट करते
बत्ती बाबू
सौ बीघा के हर घर के
मांग की सिन्दूर थे
क्योंकि खादान के भीतर
बत्ती बुझ जाने का मतलब होता था
जिन्दगी का बुझ जाना
तुम्हारे बीचो बीच
हुआ करता था
एक बारूद घर
जहाँ मनाही थी
जाने की
रहस्य ही बना रहा
वह बारूद घर
ख़त्म होने तक
याद करो पंडित स्कूल
और शनिवार की आखिरी कक्षा
जहां हुआ करता था
सांकृतिक कार्यक्रम
अपनी पहली कविता
वहीं सुनायी थी मैंने

स्कूल के पीछे
शिव मंदिर के
पंडित जी की छोटी बेटी
मुस्‍कराती थी शर्माती थी



झरिया
सुना होगा
मुहावरा आपने
आग से खेलना
लेकिन
हम झारियावाले
आग जी रहे हैं
पीढ़ियों से
आग ओढना
बिछौना आग
आग पर चलना
आग से खेलना
हमारा शौक नहीं है
मजबूरी है
जो अफसर, सरकार, मंत्री के
बदलने के साथ
नहीं बदली
बढ़ती ही गई आग
पेट में
आँखों में
ह्रदय में
और कोयले में
झरिया
जहाँ पीपल के नीचे के हनुमान जी की मंदिर में
कुस्ती लड़ते थे दद्दा
सुना है अंग्रेजो के भी पटक दिया करते थे
जहाँ ठेहुनिया दे के चलना सीखे थे
बाबूजी हमारे
और हम एक धौरा से दुसरे धौरा
साइकिल हांकते रहते थे दिन भर
जिसको हमारे पसीने की गंध का भी पता है
अब नहीं रहेगा
ध्वस्त कर दिया जायेगा झरिया
और झरिया में पलने वाले सपने
झरिया
एक शहर नहीं है
देशवासियों
एक घर है
जो जल रहा है
जो टूट रहा है
बिखर रहा है
विस्थापित हो रहा है

Saturday, October 2, 2010

शिवकुमार समन्वय की कविताएँ

एक -
एक बार
जब मैंने
छत पर रखी
आवारा मटकी को
यों ही
पानी से भर दिया था
और मेरे कुछ दूर हटते ही
छोटी-काली चिड़िया ने
उसमें
कई बार चोंच-भर
पानी पिया था
क्या बताऊँ
वो जो
आह्लाद मुझमें गूँजा था
नानी के घर पहुँचे
अपने बच्चे की याद
मुझे आयी थी।

दो -
एक बार
मार डाला था
गुरुजी ने
अर्धरात्रि में ही
बाँग देनेवाले मुरगे को
अब पूछूँगा मैं
मिलने पर गुरुजी से
कि क्या करूँ
रिश्वतखोर मुलाजिम का
क्या करूँ
पेड़ ही काट डालनेवाले
लकड़हारे का
इलाज लम्बा खींचने वाले डाक्टर का
क्या करूँ
व्यापारी शिक्षक का
नियम तोड़ते वाहन-चालक का
क्या करूँ नदी में गिरते नाले का
शायद ढूँढ़ नहीं पाऊँगा गुरुजी को
मिल भी गये तो
क्या पूछ पाऊँगा यह सब
क्योंकि इस पूरे चित्र में
कभी मैं चित्रकार हूँ
कभी कूँची हूँ
कभी रंग हूँ
कभी कैनवस मैं हूँ।

(शिवकुमार युवा रचनाकार हैं। मुजफ्फरनगर में पत्थर का व्यवसाय करते हैं। कविता छपवाने के मामले में बेहद संकोची हैं।)

Thursday, September 2, 2010

असद जैदी की कविताएँ

असद जैदी के जन्मदिवस के शुभ अवसर पर उनकी दो कविताएँ यहाँ ‘कविता कोश’ से साभार पोस्ट कर रहे हैं।


पानी


जब तक में इसे जल न कहूँ
मुझे इसकी कल.कल सुनाई नहीं देती
मेरी चुटिया इससे भीगती नहीं
मेरे लोटे में भरा रहता है अन्धकार
पाणिनी भी इसे जल कहते थे
पानी नहीं
कालान्तर में इसे पानी कहा जाने लगा
रघुवीर सहाय जैसे कवि
उठकर बोलेः
ष्पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया।
सही कहा . पानी में बानी कहाँ
वह जो जल में है।


शनिवार


सुबह.सुबह जब मैं रास्ते में रुककर फ़ुटफाथ पर झुककर
ख़रीद रहा था हिंदी के उस प्रतापी अख़बार को
किसी धातु के काले पत्तर की
तेल से चुपड़ी एक आकृति दिखाकर
एक बदतमीज़ बालक मेरे कान के पास चिल्लाया..
सनी महाराज!


दिमाग सुन्न ऐनक फिसली जेब में रखे सिक्के खनके
मैंने देना चाहा उसको एक मोटी गाली
इतनी मोटी कि सबको दिखाई दे गई
लड़का भी जानता था कि
पहली ज़्यादती उसी की थी
और यह कि खतरा अब टल गाया


कहाँ के होघ् मैंने दिखावटी रुखाई से पूछा
और वो कम्बख़्त मेरा हमवतन निकला
ये शनि महाराज कौन हैं
उसने कहा॥ का पतौण्ण्ण् !


इसके बाद मैंने छोड़ दी व्यापक राष्ट्रीय हित की चिंता
और हिंदी भाषा का मोह
भेंट किए तीनों सिक्के उस बदमाश लड़के को।

Monday, August 23, 2010

शहंशाह आलम की कविताएँ


सभाओं के बाद


शहर में रोज़ सभाएँ होती हैं इन दिनों
मरुस्थल के निकट पीले पत्तों के बीच
सभाओं में उन्हें अपनी ही कही
बातों कोसत्य साबित करने की चिंता होती बस

हमें दुष्ट घोषित करते वे बार-बार
सभाओं में और साा स्थल के बाहर
यही समय है बिलकुल यही समय उनके लिए

वे सबसे मौलिक शैली में
असंख्य पक्षियों को मारते
असंख्य वृक्षों को काटते
असंख्य घरों को उजाड़ते
असंख्य तस्वीरों को फाड़ते

असंख्य-असंख्य शब्दों के साथ करते बलात्कार तन्मय

सभाओं के बाद अमात्य-महामात्य
मुस्काते हौले-हौले एकदम असामाजिक
हमारे समय के रुदन पर।

मैं भी कहूँगा

मैं भी कहूँगा,वंदे मातरम्
जैसे कि कहती हैं लता मंगेश्कर
जैसे कि कहते हैं ए आर रहमान
किसी गृहमंत्री
किसी सरसंघचालक
किसी पार्टी अध्यक्ष के कहने से नहीं कहूँगा मैं
वंदे मातरम्।

जाड़ा

आज सबसे अधिक क्रोधित हुआ वह गँूगा
सबसे अधिक गुस्साई वह औरत
सबसे अधिक झल्लाया वह रिक्शावाला
आज हड्डियाँ बजती थीं उनकी चतुर्दिक

आज अचानक सब
सिर्फ़ क्रोधित हुए
सिर्फ़ गुस्साए
सिर्फ़ झल्लाए
शिविर में
इस भूखंड़ पर।

(उनके ताज़ा कविता-संग्रह ‘वितान’ से साभार)

Saturday, August 7, 2010

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविताएँ



याद नहीं आता
कहाँ देखा है इसे
प्रेम पत्र लिखते या शिशु को स्तन पान कराते
कोणार्क या खजुराहो किन पत्थरों में
बहती यह स्त्रोतस्विनी
किन लहरों पर उड़ते हुए
पहुँची है यहाँ तक

देखा है इसे अफ़वाहों के बीच
जब इसका पेट उठ रहा था ऊपर
और शरीर पीला हो रहा था
जिसे छिपाने की कोशिश में
यह स्वयं हो गई थी अदृश्य
हाथ पसारे मिली थी यह एक दिन
एक अनाम टीसन पर
बूढ़े बाप की ताड़ी के जुगाड़ के लिए
पलापाती जीभों के बीच
एक दिन पड़ी थी अज्ञात
यह नितम्बवती उरोजवती चेतनाशून्य सड़क पर

यही है
जो महारथियों के बीच नंगी होती
करती अगिन अस्नानधरती में
समाती रही युगों युगों से लोक मर्यादा के लिए

यही है
जिसे इतनी बार देखा है कि
याद नहीं आता कहाँ देखा है इसे ।


2
पहली बार नहीं देखा था इसे बुद्ध ने
इसकी कथा अनन्त है
कोई नहीं कह सका इसे पूरी तरह
कोई नहीं लिख सका संपूर्ण

किसी भी धर्म मेंए किसी भी पोथी में
अँट नहीं सका यह पूरी तरह

हर रूप में कितने.कितने रूप
कितना.कितना बाहर
और कितना.कितना भीतर
क्या तुम देखने चले हो दुःख

नहीं जाना है किसी भविष्यवक्ता के पास
न अस्पताल न शहर न गाँव न जंगल
जहाँ तुम खड़े हो
देख सकते हो वहीं
पानी की तरह राह बनाता नीचे
और नीचे
आग की तरह लपलपाता
समुद्र.सा फुफकारता दुःख

कोई पंथ कोई संघ
कोई हथियार नहीं
कोई राजा कोई संसद
कोई इश्तिहार नहीं

तुम
हाँ हाँ तुम
सिर्फ़ हथेली से उदह हो
तो चुल्लू भर कम हो सकता है
मनुष्यता का दुःख ।

Thursday, August 5, 2010

कुमार अनुपम की कविताएँ


1
सुबह काम पर निकलता हूँ
समूचा निकलता हूँ
काम पर जाते।

जाते हुए पाँव होता हूँ
या हड़बड़ीधक्के होता हूँ या उसाँस
काम करते-करते हुएहाथ होता हूँ
या दिमाग़ आँख होता हूँ
या शर्मिन्दा चारण होता हूँ

या कोफ़्त उफ़्फ़ होता हूँ या आह
काम से लौटते-लौटते
हुए नाख़ून होता हूँ
या थकानबाल होता हूँ
या
फ़ेहरिस्त
शाम काम से लौटता हूँ समूचा;
उम्मीद की आँखें टटोलती हैं मुझे
मेरे भीतर, हड्डियों और नसों
और शिराओं में रातकलपती रहती है सुबह के लिए।


2
पुरखों की स्मृतियों और आस और अस्थियों पर थमी थी घर की ईंट.ईंट
उहापोह और अतृप्ति का कुटुम्ब वहीं चढ़ाता था

अपनी तृष्णा पर सान
एक कबीर अपनी धमनियों से बुनने की मशक्कत में

एक चादर निर्गुन पुकार में बदल जाता था
बारम्बार कि सपनों की निहंगम
देह के बरक्स छोटा पड़ जाता था हर बार आकार
बावजूद इसके जो था एक घर था
विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज़
बीसवीं सदी के बिचले वर्षों में स्मृतियां
और स्वप्न जहाँ दिख रहे हैंसहमत सगोतिया
पात्रा एलबम की तस्वीर है अब मात्रा
फासलों को पाटने की वैश्विक कार।

सेवा में बौख़लाया था जब सारा जहान
दिखा तभी पहली पहली दफ़ा
अतिस्पष्ट देख कर भी जिसे किया जाता रहा था अदेखा
शिष्टता के पश्चाताप का छंदण्ण्ण्
और दीवारों और स्मृतियों से एक-एक कर उधड़ गए

बूढ़ी त्वचा के पैबंद गुमराह
आंधियों के ज़ोर से खुलते ही गये आत्मा के घाव
और इक्कीसवीं सदी का अवतार हुआ
मध्यवर्गीय इतिहास के अंत के उपरांत
कुछ तालियाँ बजीं कुछ ठहाके गूँजे
नेपथ्य से कुछ जश्न हुए
सात समुंदर पार एक वैश्विक गुंडे ने डकार खारिज की
राहत की सुरक्षित साँस ली
अनावश्यक और बेवज़ह घटित हुआ
प्रतीक्षित शक गोया कि घटना कोई घटती नहीं अचानक
किस्तों में भरी जाती है हींग आत्मघाती सूखती है
धीरे-धीरे.धीरे भीतर की नमी मंद पड़ता है
कोशिकाओं का व्यवहार धराशाई होता है
तब एक चीड़ का छतनार
धीरे-धीरे-धीरे लुप्त होती है एक संस्कृति
एक प्रजाति षड्यंत्रों के गर्भ में बिला जाती है
ख़ैर! को जुमले की तरह प्रयोग करने से बचता है
एक कवि
अपनी चारदीवारी में लौटने से पहले कि
कुटुम्ब की अवधारणा ही अपदस्थ
जब घर की नयी संकल्पना से
ऐसे में गल्प से अधिक नहीं रह जाता यह यथार्थ।

Monday, August 2, 2010

व्योमेश शुक्ल को बधाई


नयी पीढ़ी की बुलंद आवाज़ के प्रतिनिधि कवि व्योमेश शुक्ल को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया हैउनको शब्द-शक्ति की और से हार्दिक बधाईइस अवसर पर विष्णु खरे की इन पंक्तियों के साथ उनकी दो कविताएं प्रस्तुत है -
‘‘जब आपका मुक़ाबला व्योमेश शुक्ल जैसे प्रतिभावान युवा हिन्दी कवि से होता है तो आप सिर्फ उसे समझने के लिए नहीं,स्वयं अपना दिमाग साफ करने के लिए भी एक पहला उपक्रम तो यह करते हैं कि उसे और उस जैसे अन्य युवा हिन्दी कवियों को किस परम्परा के परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू किया जाए। प्रारम्भ में ही ऋग्वेद और महाभारत की काव्य-प्रवृत्तियाँ याद आती हैं जो कबीर, रहीम, रसखान, मीर, नज़ीर, ग़ालिब, हरऔध, छायावादी चतुमूर्ति-विशेषतः निराला,मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन,भवानी प्रसाद मिश्र से होती हुई हमें रघुवीर सहाय तक पहुँचाती हैं,लेकिन एकदम सूसामयिक संदर्भ में हमें व्योमेश शुक्ल जैसे 21 वीं सदी के पहले दशक के युवा हिन्दी कवि मुख्यतः मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के अपेक्षाकृत बड़े सिलसिले या प्रबलतर धारा के हरावल में दिखाई से देते हैं।’’
-विष्णुखरे
चौदह भाई बहन
झेंप से पहले परिचय की याद उसी दिन की
कुछ लोग मुझसे पूछे तुम कितने भई बहन हो
मैंने कभी गिना नहीं था गिनने लगा
अन्नू दीदी मीनू दीदी भानू भैया नीतू दीदी
आशू भैया मानू भैया चीनू दीदी
बचानू गोल्टी सुग्गू मज्जन
पिण्टू छोटू टोनी
तब इतने ही थे
मैं छोटा बोला चौदह
वे हँसे जान गये ममेरों मौसेरों को सगा मानने की मेरी निर्दोष गलती
इस तरह मुझे बताई गई
माँ के गर्भ और पिता के वीर्य की अनिवार्यता
और सगेपन की रूढ़ि

बूथ पर लड़ना
पोलिंग बूथ पर कई चीज़ों का मतलब बिल्कुल साफ़
जैसे साम्प्रदायिकता माने कमल का फूल
और साम्प्रदायिकता-विरोध यानी संघी कैडेटों को फर्जी वोट डालने से रोकना
भाजपा का प्रत्याशी
सभी चुनाव कर्मचारियों
और दूसरी पार्टी के पोलिंग एजेंटों को भी, मान लीजिये कि आर्थिक विकास के तौर पर एक समृद्ध
नाश्ता कराता है
इस तरह बूथ का पूरा परिवेश आगामी अन्याय के प्रति भी कृतज्ञ
ऐसे में, प्रतिबद्धता के मायने हैं नाश्ता लेने से मना करना

हालाँकि कुछ खब्ती प्रतिबद्ध चुनाव पहले की सरगर्मी में
घर-घर पर्चियां बांटते हुए हाथ में वोटर लिस्ट लिए
संभावित फर्जी वोट तोड़ते हुए भी देखे जाते हैं
एक परफेक्ट होमवर्क करके आए हुए पहरुए
संदिग्ध नामों पर वोट डालने आए हुओं पर शक करते हैं

संसार के हर कोने में इन निर्भीकों की जान को खतरा है
इनसे चिढ़ते हैं दूसरी पार्टियों के लोग
अंततः अपनी पार्टी वाले भी इनसे चिढ़ने लगते हैं
ये पिछले कई चुनावों से यही काम कर रहे होते हैं
और आगामी चुनावों तक करते रहते हैं
ऐसे सभी प्रतिबद्ध बूढ़े होते हुए हैं
और इनका आने वाला वक्त खासा मुश्किल है

अब साम्प्रदायिक बीस-बीस के जत्थों में बूथ पर पहुँचने लगे हैं
और खुलेआम सैफुनिया सईदा फुन्नन मियाँ जुम्मन शेख अमीना और हामिद के नाम पर वोट डालते हैं
इन्हें मना करना कठिन समझाना असंभव रोकने पर पिटना तय

इनके चलने पर हमेशा धूल उड़ती है
ये हमेशा जवान होते हैं कुचलते हुए आते हैं
गालियाँ वाक्य विन्यास तय करती हैं चेहरे पर विजय की विकृति
सृष्टि में कहीं भी इनके होने के एहसास से प्रत्येक को डर लगता है

एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के अंतराल में
आजकल
फिर भी कुछ लोग इनसे लड़ने की तरकीबें सोच रहे हैं

Friday, July 30, 2010

अश्वघोष की कविताएं




सदियों से भूखी औरत
सदियों से भूखी औरत करती है सोलह सिंगार
पानी भरी थाली में देखती है चन्द्रमा की परछाईं
छलनी में से झाँकती है पति का चेहरा
करती है कामना दीर्घ आयु की

सदियों से भूखी औरत
मन ही मन बनाती है रेत के घरौंदें
पति का करती है इन्तज़ार
बिछाती है पलकें
ऊबड़ खाबड़ पगडण्डी पर
हर व़क्त गाती है गुणगान पति का
बच्चों में देखती है उसका अक्स

सदियों से भूखी औरत
अन्त तक नहीं जान पाती उस तेन्दुए की प्रवृति
जो करता रहा है शिकार
उन निरीह बकरियों का
आती रही हैं जो उसकी गिरफ्त में
कहीं भी किसी भी समय।



ग़ज़ल-१
जो भी सपना तेरे-मेरे दरमियाँ रह जाएगा
बस वही इस ज़िंदगी का दास्ताँ रह जाएगा

कट गए हैं हाथ तो आवाज़ से पथराव कर
याद सबको यार मेरे ये समाँ रह जाएगा।

भूख है तो भूख का चर्चा भी होना चाहिए
वर्ना घुटकर सबके मन में ये धुआँ रह जाएगा।

ये धुँधलके हैं समय के, सोचकर परवाज़ कर
यों ही बादल फट गया गर, तू कहाँ रह जाएगा।

जो भी पूछे तो अदालत, बोल देना बेझिझक
तू रह पाया तो क्या, तेरा बयाँ रह जाएगा।


ग़ज़ल -
सिलसिला ये दोस्ती का हादसा जैसा लगे
फिर तेरा हर लफ़्ज़ मुझको क्यों दुआ जैसा लगे।

बस्तियाँ जिसने जलाई मज़हबों के नाम पर
मजहबों से शख़्स वो इकदम जुदा जैसा लगे।

इक परिंदा भूल से क्या गया था एक दिन
अब परिंदों को मेरा घर घोंसला जैसा लगे

घंटियों की भाँति जब बजने लगें खामोशियाँ
घंटियों का शोर क्यों जलजला जैसा लगे।

बंद कमरे की उमस में छिपकली को देखकर
ज़िन्दगी का ये सफ़र इक हौसला जैसा लगे।

Monday, July 26, 2010

रमेश प्रजापति की कविताएँ


किरकिरा रही है समय की धूल
दिन के मुँह पर बिखरे लाल धब्बे पड़ गए हैं साँवले
धरती की छाती पर पसर गए हैं काले पहाड़
और खेत में ठिठुर रही है
एक उम्मीद बची थी आँखों में कि
अँधेरे में लिपटा धरती का चेहराजगमगा उठेगा,
फिर से धूल मं लिपटी चींजें झिलमिलाएगी
इसी टिमटिमा रहे थे धुंधली आँखों में जुगनू

तरक्की के दौर में
मज़दूरों के सपने लहूलुहान हो रहे हैं
बाज़ार के मगरमछी जबड़े में फँसा जीवन
झूल रहा है अतीत और भविष्य के बीच
अँधेरे के दूसरे छोर पर गगनचुंभी इमारत की बुर्ज पर ठहरा
झिलमिला रहा है उम्मीद का चाँद
अपने ही खेतों में
कुछ किसान-परिवार सो चुके हैं कर्ज़ की गहरी नींद में
और फूलता जा रहा है औद्योगिकरण का पेट
पहाड़ के कँधे पर महकते मकोये, शहतूत, करौंदे
और सेमल की मीठी गंध के झोंकों से खिल रही हैं बच्चों की बाँछें
बिवाई फटे पैरों से बेखटके नाप रहे हैं चरवाहे
पहाड़ों का कद,
और अपने पैर की कोस रहे हैं हम
धरती के उजाड़ उपवन में
डरी सहमी-सी उड़ रही हैं चिड़ियाएँ और तितलियाँ

नए साज़ो-सामान के लदा
किसानों के सपनों का खून करता
आ रहा है धड़धड़ता नए पूँजीवाद का रथ
ढीली हो चुकी है मजबूत हाथों की पकड़
छीने जा रहे हैं भूख से लड़ने के औज़ार
ग्लोबलवार्मिंग के खतरनाक इरादों से
काँप रहे हैं धरती के मौसम
एक विषाद भरे काले धुएँ के अँधेरे में
डूब रही हैं बस्तियाँ,
जंगलों में पसर रहा है खौफनाक सन्नाटा
मजदूरों के हाथों से छूटकर
रोटी उड़ रही है हवा में
और बेरहम समय की धूल
किरकिरा रही है मेहनतकशों की जीभ पर।

काँप उठा राजपथ
यहाँ ...
दूर तक फैली है गूँगी नीरवता
भोले-भाले पड़ोसी के घर में
छुपे आस्तीन के साँप के डसते ही अचानक
गूँज उठीं चीत्कारों से सूनी गलियाँ
नोंच रहे हैं आवारा कुत्ते लहुलुहान मानवता की हड्डियाँ
और चिपके हुए है मांस के लोथड़े
ऊँचे भवनों की चिकनी दीवारों

बरसों पुरानी प्रेम की नदी
अचानक तोड़ रही है आक्रोश से
अपने तटबंध
उनकी धमक से गड़बड़ा गया है सत्ता का व्याकरण,
हवाओं में घुलती खुरों की ठप-ठप
भर रही है ब्रह्मांड का गह्वर ,
क्षितिज से उठते धूल का बवंडर से
चैकन्ने हो रहे हैं दिशाओं के कान
दौड़ रही है धमनियों में
नगाड़े की धुन
और झूम उठी हैं मस्ती में
पेड़ों की टहनियां
बच्चे जा रहे हैं अपने कोमल कंधों पर लादकर
भविष्य की चिंता का बोझ
शिक्षा की दुकानों की ओर
और चिड़िया दे रही है चुग्गा चूजों को
गूँज रही हैं हवा में
तनी मुट्ठियों की कसक
बरसों की उनींदी आँखें खोलकर
बदहाली और दहशत की धुंध में लिपटा यह शहर
थिरक उठा है मृदंग की थाप पर
टुनटुनाती टालियों की धुन पर
झूम रहा है खण्डहरों का सन्नाटा
और बरसों से खामोशी में लिपटा पेड़
अँधेरे की छाती पर पड़ते ही
सूरज के घोड़ों की टापों से
फूटतीं चिनगारियाँ से
चैककर काँप उठा है राजपथ।

Thursday, July 22, 2010

परमेन्द्र सिंह की कविताएँ


मेरा दुःख
मेरा दुख मिटा नहीं
खो गया -
अख़बार की ख़ूनी ख़बरों में
उबलती नदियों पर जमी बर्फ़ में


मेरा
दुःख मिटा नहीं
कट गया -
बच्चों की दूधिया हँसी से
किसान की दराँती से


मेरा दुःख मिटा नहीं

बदल गया -
विज्ञापन में और बिक गया।

लगभग जीवन

अधिकांश लोग जी रहे हैं
तीखा जीवन
लगभग व्यंग्य
अधिकांश बँट गए से बचे
लगभग जीवन में

अधिकांश पर
बैठी मृत्यु

लगभग स्वतंत्र
अधिकांश लोगों में
स्वतंत्र होने की चाह

स्वतंत्रता के बाद भी


लगभग नागरिकों की
अधिकांशतः श्रेष्ठ नागरिकता
लोकतंत्र का लगभग निर्माण कर चुकी है
अधिकांश लोग लगभग संतुष्ट हैं
शेष अधिकांश से लगभग अधिक हैं।