Saturday, August 7, 2010

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविताएँ



याद नहीं आता
कहाँ देखा है इसे
प्रेम पत्र लिखते या शिशु को स्तन पान कराते
कोणार्क या खजुराहो किन पत्थरों में
बहती यह स्त्रोतस्विनी
किन लहरों पर उड़ते हुए
पहुँची है यहाँ तक

देखा है इसे अफ़वाहों के बीच
जब इसका पेट उठ रहा था ऊपर
और शरीर पीला हो रहा था
जिसे छिपाने की कोशिश में
यह स्वयं हो गई थी अदृश्य
हाथ पसारे मिली थी यह एक दिन
एक अनाम टीसन पर
बूढ़े बाप की ताड़ी के जुगाड़ के लिए
पलापाती जीभों के बीच
एक दिन पड़ी थी अज्ञात
यह नितम्बवती उरोजवती चेतनाशून्य सड़क पर

यही है
जो महारथियों के बीच नंगी होती
करती अगिन अस्नानधरती में
समाती रही युगों युगों से लोक मर्यादा के लिए

यही है
जिसे इतनी बार देखा है कि
याद नहीं आता कहाँ देखा है इसे ।


2
पहली बार नहीं देखा था इसे बुद्ध ने
इसकी कथा अनन्त है
कोई नहीं कह सका इसे पूरी तरह
कोई नहीं लिख सका संपूर्ण

किसी भी धर्म मेंए किसी भी पोथी में
अँट नहीं सका यह पूरी तरह

हर रूप में कितने.कितने रूप
कितना.कितना बाहर
और कितना.कितना भीतर
क्या तुम देखने चले हो दुःख

नहीं जाना है किसी भविष्यवक्ता के पास
न अस्पताल न शहर न गाँव न जंगल
जहाँ तुम खड़े हो
देख सकते हो वहीं
पानी की तरह राह बनाता नीचे
और नीचे
आग की तरह लपलपाता
समुद्र.सा फुफकारता दुःख

कोई पंथ कोई संघ
कोई हथियार नहीं
कोई राजा कोई संसद
कोई इश्तिहार नहीं

तुम
हाँ हाँ तुम
सिर्फ़ हथेली से उदह हो
तो चुल्लू भर कम हो सकता है
मनुष्यता का दुःख ।

No comments:

Post a Comment