
सदियों से भूखी औरत
सदियों से भूखी औरत करती है सोलह सिंगार
पानी भरी थाली में देखती है चन्द्रमा की परछाईं
छलनी में से झाँकती है पति का चेहरा
करती है कामना दीर्घ आयु की
सदियों से भूखी औरत
मन ही मन बनाती है रेत के घरौंदें
पति का करती है इन्तज़ार
बिछाती है पलकें
ऊबड़ खाबड़ पगडण्डी पर
हर व़क्त गाती है गुणगान पति का
बच्चों में देखती है उसका अक्स
सदियों से भूखी औरत
अन्त तक नहीं जान पाती उस तेन्दुए की प्रवृति
जो करता रहा है शिकार
उन निरीह बकरियों का
आती रही हैं जो उसकी गिरफ्त में
कहीं भी किसी भी समय।
ग़ज़ल-१
जो भी सपना तेरे-मेरे दरमियाँ रह जाएगा।
बस वही इस ज़िंदगी का दास्ताँ रह जाएगा।
कट गए हैं हाथ तो आवाज़ से पथराव कर
याद सबको यार मेरे ये समाँ रह जाएगा।
भूख है तो भूख का चर्चा भी होना चाहिए
वर्ना घुटकर सबके मन में ये धुआँ रह जाएगा।
ये धुँधलके हैं समय के, सोचकर परवाज़ कर
यों ही बादल फट गया गर, तू कहाँ रह जाएगा।
जो भी पूछे तो अदालत, बोल देना बेझिझक
तू न रह पाया तो क्या, तेरा बयाँ रह जाएगा।
ग़ज़ल -२
पानी भरी थाली में देखती है चन्द्रमा की परछाईं
छलनी में से झाँकती है पति का चेहरा
करती है कामना दीर्घ आयु की
सदियों से भूखी औरत
मन ही मन बनाती है रेत के घरौंदें
पति का करती है इन्तज़ार
बिछाती है पलकें
ऊबड़ खाबड़ पगडण्डी पर
हर व़क्त गाती है गुणगान पति का
बच्चों में देखती है उसका अक्स
सदियों से भूखी औरत
अन्त तक नहीं जान पाती उस तेन्दुए की प्रवृति
जो करता रहा है शिकार
उन निरीह बकरियों का
आती रही हैं जो उसकी गिरफ्त में
कहीं भी किसी भी समय।
ग़ज़ल-१
जो भी सपना तेरे-मेरे दरमियाँ रह जाएगा।
बस वही इस ज़िंदगी का दास्ताँ रह जाएगा।
कट गए हैं हाथ तो आवाज़ से पथराव कर
याद सबको यार मेरे ये समाँ रह जाएगा।
भूख है तो भूख का चर्चा भी होना चाहिए
वर्ना घुटकर सबके मन में ये धुआँ रह जाएगा।
ये धुँधलके हैं समय के, सोचकर परवाज़ कर
यों ही बादल फट गया गर, तू कहाँ रह जाएगा।
जो भी पूछे तो अदालत, बोल देना बेझिझक
तू न रह पाया तो क्या, तेरा बयाँ रह जाएगा।
ग़ज़ल -२
सिलसिला ये दोस्ती का हादसा जैसा लगे
फिर तेरा हर लफ़्ज़ मुझको क्यों दुआ जैसा लगे।
बस्तियाँ जिसने जलाई मज़हबों के नाम पर
मजहबों से शख़्स वो इकदम जुदा जैसा लगे।
इक परिंदा भूल से क्या आ गया था एक दिन
अब परिंदों को मेरा घर घोंसला जैसा लगे
घंटियों की भाँति जब बजने लगें खामोशियाँ
घंटियों का शोर क्यों न जलजला जैसा लगे।
बंद कमरे की उमस में छिपकली को देखकर
ज़िन्दगी का ये सफ़र इक हौसला जैसा लगे।
फिर तेरा हर लफ़्ज़ मुझको क्यों दुआ जैसा लगे।
बस्तियाँ जिसने जलाई मज़हबों के नाम पर
मजहबों से शख़्स वो इकदम जुदा जैसा लगे।
इक परिंदा भूल से क्या आ गया था एक दिन
अब परिंदों को मेरा घर घोंसला जैसा लगे
घंटियों की भाँति जब बजने लगें खामोशियाँ
घंटियों का शोर क्यों न जलजला जैसा लगे।
बंद कमरे की उमस में छिपकली को देखकर
ज़िन्दगी का ये सफ़र इक हौसला जैसा लगे।